आप अपने जीवन को आनंद से जीने के बजाय पल-प्रतिपल, घुट-घुट कर और आंसू बहाकर रोते और बिलखते हुए काटना चाहते हैं या अपने जीवन में प्रकृति के हर एक सुख तथा सौन्दर्य को बिखेरना और भोगना चाहते हैं? यह समझने वाली बात है कि जब तक आप नहीं चाहेंगे और कोई भी आपके लिये कुछ नहीं कर सकता है! यदि सत्य धर्म से जुड़ना चाहते है तो सबसे पहले इस बात को समझ लेना उचित होगा कि आखिर "सत्य-धर्म" है क्या? इस बारे में आगे जानने से पूर्व इस बात को समझ लेना भी उपयुक्त होगा कि चाहे आप संसार के किसी भी धर्म के अनुयाई हों, सत्य धर्म को अपनाने या सत्य धर्म का अनुसरण करने से पूर्व आपको ना तो वर्तमान धर्म को छोड़ना होगा और ना ही सत्य धर्म को धारण करने या अपनाने के लिए किसी प्रकार का अनुष्ठान या ढोंग करना होगा!
सत्य धर्म में-जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, जन्मपत्री-कुंडली, गृह-गोचर, गंडा-ताबीज आदि कुछ भी नहीं, केवल एक-'वैज्ञानिक प्रार्थना'-का कमाल और आपकी हर समस्या/उलझन का स्थायी समाधान! पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ आप अपनी समस्या के बारे में सत्य और सही जानकारी भेजें, हाँ यदि आप कुछ भी छिपायेंगे या संकोच करेंगे या गलत सूचना देंगे, तो आपकी समस्या या उलझन का समाधान असम्भव है, क्योंकि ऐसी स्थिति में आप स्वयं ही, अपनी सबसे बड़ी समस्या हैं!-18.04.2011
वैज्ञानिक प्रार्थना: हम में से अधिकतर लोग तब प्रार्थना करते हैं, जबकि हम किसी भयानक मुसीबत या समस्या में फंस जाते हैं या फंस चुके होते हैं! या जब हम या हमारा कोई अपना किसी भयंकर बीमारी या मुसीबत या दुर्घटना से जूझ रहा होता है! ऐसे समय में हमारे अन्तर्मन से स्वत: ही प्रार्थना निकलती हैं। इसका मतलब ये हुआ कि हम प्रार्थना करने के लिये किसी मुसीबत या अनहोनी का इन्तजार करते रहते हैं! यदि हमें प्रार्थना की शक्ति में विश्वास है तो हमें सामान्य दिनों में भी, बल्कि हर दिन ही प्रार्थना करनी चाहिये। कुछ लोग सामान्य दिनों में भी प्रार्थना करते भी हैं, लेकिन सबसे बड़ी समस्या और हकीकत यह है कि "हम में से बिरले ही जानते हैं कि सफल और परिणामदायी प्रार्थना कैसे की जाती है?" यही कारण है कि हमारे हृदय से निकलने वाली निजी और सामूहिक प्रार्थना/प्रार्थनाएँ भी असफल हो जाती हैं! हम निराश हो जाते हैं! प्रार्थना की शक्ति के प्रति हमारी आस्था धीरे-धीरे कम या समाप्त होने लगती है! जिससे निराशा और अवसाद का जन्म होता है, जबकि प्रार्थना की असफलता के लिए प्रार्थना की शक्ति नहीं, बल्कि प्रार्थना के बारे में हमारी अज्ञानता ही जिम्मेदार होती है! इसलिये यह जानना बहुत जरूरी है कि सफल, सकारात्मक और परिणामदायी प्रार्थना का नाम ही-'वैज्ञानिक प्रार्थना' है और 'वैज्ञानिक प्रार्थना' ही 'कारगर प्रार्थना' है! जिसका किसी धर्म या सम्प्रदाय से कोई सम्बन्ध नहीं है! 'वैज्ञानिक प्रार्थना' तो प्रकृति और सार्वभौमिक सत्य की भलाई और जीवन के उत्थान के लिये है! उत्साह, उमंग, आनंद, शांति, और सकून का आधार है 'वैज्ञानिक प्रार्थना'! किसी भी धर्म में 'वैज्ञानिक प्रार्थना' की मनाही नहीं हो सकती, क्योंकि वैज्ञानिक प्रार्थना का किसी धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है! जरूरत है 'वैज्ञानिक प्रार्थना' को सीखने और समझने की पात्रता अर्जित करने और उसे अपने जीवन में अपनाने की।

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हम सब पवित्र आस्थावान और सच्चे विश्वासी बनें ना कि अविश्वासी या अन्धविश्वासी! क्योंकि अविश्वासी या अन्धविश्वासी दोनों ही कदम-कदम पर दुखी, तनावग्रस्त, असंतुष्ट और असफल रहते हैं!
-सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
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08/03/2012

सत्संग : शान्ति के साथ सच्चे-सुख और स्वास्थ्य की प्राप्ति!

बहुत कम लोग जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति अपने आपका निर्माण खुद ही करता है! हम प्रतिदिन अपने परिवार, समाज और अपने कार्यकलापों के दौरान बहुत सारी बातें और विचार सुनते, देखते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन जब हम उन बातों और विचारों में से कुछ (जिनमें हमारी अधिक रुचि होती है) को ध्यानपूर्वक सुनते, देखते, समझते  और पढ़ते हैं तो ऐसे विचार या बातें हमारे मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेती हैं! जिन बातों और विचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क अधिक सजग, सकारात्मक और संवेदनशील होता| जिन बातों और विचारों के प्रति हमारा मस्तिष्क मोह या स्नेह या लगाव पैदा कर लेता है! उन सब बातों और विचारों को हमारा मस्तिष्क गहराई में हमारे अन्दर स्थापित कर देता है! उस गहरे स्थान को हम सरलता से समझने के लिये "अंतर्मन" या "अवचेतन मन" कह सकते हैं! जो भी बातें और जो भी विचार हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में सुस्थापित हो जाते हैं, वे हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में सुस्थापित होकर धीरे-धीरे हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर अपना गहरा तथा स्थायी प्रभाव छोड़ना शुरू कर देते हैं! जिससे हमारे जीवन का उसी दिशा में निर्माण होने लगता है! 

यदि हमारे अंतर्मन या अवचेतन मन में स्थापित विचार नकारात्मक या विध्वंसात्मक हैं तो हमारा व्यक्तित्व नकारात्मक, विध्वंसात्मक और आपराधिक विचारों से संचालित होने लगता है! हम न चाहते हुए भी सही के स्थान पर गलत और सृजन के स्थान पर विसृजन, सहयोग के स्थान पर असहयोग, प्रेम के स्थान पर घृणा, विश्‍वास के स्थान पर सन्देह को तरजीह देने लगते हैं| 

परिणामस्वरूप हमारा हमारा सम्पूर्म्ण व्यक्तित्व इसी प्रकार से गलत दिशा में निर्मित होने लगता है| जैसा नकारात्मक हमारा व्यक्तितव निर्मित होता है, दैनिक जीवन में उसी के मुताबिक हम परिवार में तथा बाहरी लोगों से दुर्व्यवहार करने लगते हैं| जिससे हमारी, हमारे अपने परिवार तथा आत्मीय लोगों बीच हमारी ऐसी कुण्ठायुक्त पहचान निर्मित होने लगती है| हमारे अन्तर्मन या अवचेतन मन में बैठकर हमें संचालित करने वाली धारणाओं से हमारा व्यवहार और सभी प्रकार के क्रियाकलाप निर्मित और प्रभावित होते हैं| हम जाने अनजाने और बिना अधिक सोचे-विचारें उन्हीं नकारात्मक तथा रुग्ण विचारों के अनुसार काम करने लगते हैं! हमारे कार्य हमारे अन्तर्मन में स्थापित हो जाते हैं|

वर्तमान में अधिकतर लोगों के साथ ऐसा ही हो रहा है! अधिकतर लोगों के अन्तर्मन में प्यार, विश्‍वास, स्नेह और सृजनात्मकता के बजाय सन्देह, अशांति, घृणा, वहम, वितृष्णा, क्रूरता और नकारात्मकता कूट-कूट कर भरी हुई है| इन सब क्रूर और असंवेदनशील विचारों के कारण हमारा व्यक्तित्व नकारात्मक दिशा में स्वत: ही संचालित होता रहता है| हमारी रुचियॉं भी हमारे इसी नकारात्मक और रुग्ण व्यक्तित्व के अनुरूप बनने लगती हैं|

हम अपनी नकारात्मक और रुग्ण रुचियों के अनुरूप बातों और विचारों में से फिर से कुछ (जिनमें हमारी अधिक रुचि होती है) को ध्यानपूर्वक सुनने, देखने, समझने और पढ़ने लगते हैं और जो विचार या बातें हमारे मस्तिष्क तथा अन्तर्मन को फिर से प्रिय लगने लगती हैं| उन्हें हम फिर से अपने मस्तिष्क में ससम्मान स्थान देना शुरू कर देते हैं| बल्कि हम ऐसी बातों का आदर के साथ स्वागत करने लगते हैं|

दुष्परिणामस्वरूप हम और-और गहरे में, अपने अन्तर्मन में नकारात्मक और विध्वंसात्मक विचारों को संजोना और संवारना शुरू कर देते हैं| इस प्रकार यह अनन्त और अमानवीय दुष्चक्र चलता रहता है| इसी के चलते हमें  पता ही नहीं चलता है और हम मानव से अमानव हो जाते हैं और हमारे आपसी आत्मीय सम्बन्ध हमारी इन मानसिक विकृतियों के कारण पल-पल अपनी ही मूर्खताओं के कारण टूट-टूट कर बिखरने लगते हैं| जिसके चलते आज करोड़ों लोग घुट-घुट कर मर रहे हैं! लाखों-करोड़ों परिवार पल-पल बिखर रहे हैं| परमात्मा के अनुपम उपहार मानव जीवन की जीने के बजाय लोग काटने को विवश हैं! सम्पूर्ण समाज खोखला होता जा रहा है और इसी के दु:खद दुष्परिणामस्वरूप अन्तत: हमारा राष्ट्र भी कमजोर होता जा रहा है|

उपरोक्त नकारात्मक परिस्थितियों के उलट यदि हम सकारात्मक और सृजनात्मक तरीके से सोचना, विचारना, समझना और दैनिक कार्य करना शुरू कर देते हैं तो हमारा मस्तिष्क सकारात्मक और सृजनात्मक बातों को ग्रहण करने लगता है और उनमें जो बातें हमारे मस्तिष्क को अधिक-सुखद और ग्राह्य लगती हैं, उन्हें वह हमारे अन्तर्मन में स्थापित कर देता है| परिणामस्वरूप हमारा अन्तर्मन अर्थात् हमारा अवचेतन मन सही, सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा में कार्य करना शुरू कर देता है| जिससे हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व प्रेममय, विश्‍वासमय, स्ननेहमय और ताजगी तथा ऊर्जा से भरा हुआ पुलकित होने लगता है| जिससे न केवल हमारा अपना निजी जीवन, बल्कि हमारा सम्पूर्ण परिवार और हमारे आसपास का माहौल खुशियों से भर जाता है|

हमें यहॉं, वहॉं और सर्वत्र प्रसन्नता और खुशी ही शुखी नजर आने लगती है| जीवन सार्थक और सम्पूर्ण नजर आने लगता है| जीवन जीने का सच्चा आनन्द और गहरी शान्ति का अनुभव होने लगता है| हमें बिना प्रयास के सुखद, गहरी और पर्याप्त नींद आने लगती है| शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य एकदम सही रहने लगता है| लोग हमारे पास बैठकर और हमसे बातें करके खुशी का इजहार करने लगते हैं| लोगों को हमारा साथ पसन्द आने लगता है| हमारे मित्रों और शुभचिन्तकों की संख्या लगातार बढोतरी होने लगती है| जिन लोगों से हमारा दूर का भी रिश्ता नहीं होता है, वे भी हमें और उनको हम करीबी और स्वजनों की भांति अपने प्रतीत होने लगते हैं|

इस सबके होते हुए भी हमारे जीवन में एक बड़ी और दुरूह व्यावहारिक समस्या भी है| चूंकि आज के समय में सम्पूर्ण समाज धन और भौतिक सुखों के पीछे आँख बंद करके भाग रहा है और येन-केन प्रकारेण धन संग्रह करने की मानव प्रवृत्ति हजारों मानवीय बुराईयों को जन्म दे रही है| जिसके चलते समाज नकारात्मक, मानसिक रूप से रुग्ण और अस्थिर लोगों से भरा पड़ा है| लोग अविश्‍वास, अनिच्छा, वहम, ढोंग, घृणा, वितृष्णा, अशान्ति जैसी नकारात्मक मनोवृत्तियों से भरे पड़े हैं|

ऐसे रुग्ण और अस्थिर लोगों के आस-पास हमेशा नकारात्मक और रुग्ण भावनाएँ जन्म लेती रहती हैं| ऐसे लोगों के मन और शरीर से विकृतता, रुग्णता, विध्वंसात्कता और विसृजन को बढावा एवं जन्म देने वाली दूषित किरणें निकलती रहती हैं| जिसका गहरा प्रभाव उनके आसपास कार्य करने वाले सामान्य लोगों के साथ-साथ, निर्मल, सच्चे, सकारात्मक तथा सृजनशील लोगों पर भी पड़ता है| जिससे ऐसे लोगों के जीवन पर कुप्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है| व्यक्ति कब सकारात्मक से नकारात्मक हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता है| मानवमनोविज्ञानी इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि आज के नकारात्मकता से भरे हुए समाज में सही एवं सकारात्मक बातों या विचारों की तुलना में गलत या नकारात्मक बातें जल्दी से अपना असर छोड़ती है| इसलिये सही और सकारात्मक लोग भी ऐसे गलत, रुग्ण एवं नकारात्मक लोगों के प्रभाव में आकर नकारात्मक होते जा रहे हैं|

इस प्रकार की विकृतियों से मानव को संरक्षित रखने के लिए ही भारत में आदिकाल से नियमित रूप से सत्संग की महत्ता पर जोर दिया जाता रहा है| परन्तु सत्संग को एक चालाक वर्ग ने अपने निजी स्वार्थों से जोड़ दिया और सत्संग का अर्थ झूठी-सच्ची धर्म में लपेटी हुई पौराणिक कथाओं की झूंठी-सच्ची चर्चा करने तक सीमित कर दिया| जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज ऐसा कथित सत्संग भी मानव मन पर कोई सकारात्मक या सुखद असर नहीं छोड़ पा रहा है| ये सत्संग रहा ही नहीं, ऐसे में उसका असर कैसे दिख सकता है? जबकि सत्संग का वास्तविक अर्थ है सत्य का संग| सत्य के संग का तात्पर्य है ऐसे सच्चे, सजग, सद्भावी, शान्त और सकारात्मक लोगों का संग जो उनसे मिलने वाले लोगों में सत्य, आस्था, विश्‍वास, स्नेह, प्रेम, सृजन, आत्मीयता, आशा, सन्तुलन, खुशी, तृप्ति, उत्साह, शान्ति और ऐसे ही अनन्य सकारात्मकता तथा आस्थावान तत्वों का बीजारोपण कर सकें|

परन्तु दु:खद तथ्य यह भी है कि आज ऐसे सच्चे और पवित्र सत्संगी महापुरुषों की संख्या बहुत कम है और जो कुछ विरले ऐसे सन्त या महापुरुष हैं, उन्हें पहचान कर, उनका सामिप्य प्राप्त करना आम व्यक्ति के लिये अत्यन्त दुर्लभ होता जा रहा है| क्योंकि ऐसे सच्चे सत्संगी धन या झूठे दिखावे से प्रभावित होकर अपना आशीष, मार्गदर्शन या अपनी कृपा या अपना स्नेह नहीं बरसाते हैं, बल्कि ऐसे सत्संगी तो सच्ची सेवा, स्नेह, आस्था और विश्‍वास के परिपूर्ण पात्र लोगों पर ही अपनी कृपा करते हैं|

यदि किसी सच्चे और निर्मल हृदयी व्यक्ति को संयोग से या प्रारब्ध से सच्चे सत्संगियों का साथ या सामिप्य प्राप्त हो जाये तो ऐसे व्यक्ति को स्वयं को सौभाग्यशाली समझना चाहिये और ऐसे अवसर को गंवाना नहीं चाहिये| बल्कि उस संयोग से मिले अवसर को अपना सच्चा सौभाग्य बना लेने के लिये सम्पूर्ण प्रयास करने चाहिये| जिससे कि अमूल्य मानव जीवन को सही, सजीव, सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा मिल सके| जीवन में शान्ति के साथ सच्चा सुख और स्वास्थ्य मिल सके| हमेशा याद रहे कि जिस दिन जीवन को सही दिशा मिल जायेगी, उसी दिन, बल्कि उसी क्षण से आपके जीवन की दशा और परिस्थितियॉ स्वत: ही सुधर जायेंगी| परमात्मा की कृपा अपने आप बरसने लगेगी| परमात्मा सभी को सच्चा-सुख, शान्ति और स्वस्थ जीवन प्रदान करे| इन्हीं शुभ कामनाओं के साथ-सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, संस्थापक-सत्य धर्म और वैज्ञानिक प्रार्थना!

शान्ति के साथ सच्चे-सुख और स्वास्थ्य की प्राप्ति!

13/02/2012

मन और मस्तिष्क का अन्तर-सम्बन्ध Inter-Relationship of Mind and Brain

हमारे मन और मस्तिष्क का अन्तरसम्बन्ध अत्यन्त गहरा है। जिसके चलते जब भी हम मानसिक चिन्ता या तनावग्रस्त होते हैं, इसके साथ या तत्काल बाद हमें अनेक प्रकार की शारीरिक बीमारियॉं भी आ घेरती हैं। वैज्ञानिका प्रार्थना के जरिये हम ऐसी समस्याओं से छुटकारा पा सकते हैं।

10/12/2011

सच्चे गुरुओं को ढूँढना असम्भव नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है!

ज्ञान तथा मार्गदर्शन की सच्ची अपेक्षा करने वालों के लिये ढोंगियों की भीड़ में सच्चे गुरुओं को ढूँढना और उनका आशीष पाना असम्भव नहीं, लेकिन मुश्किल जरूर है!
"बोलोगे नहीं तो कोई सुनेगा कैसे? या बोलोगे तभी तो कोई सुनेगा!" इन दोनों छोटे से वाक्यों में बोलने की बात तो कही गयी है| बोलने के लिये लोगों को प्रेरित करने का प्रयास किया गया है, लेकिन बोलना या अपनी बात को कहना भी कोई सामान्य या छोटी बात नहीं है| बोलने से पूर्व यह जानना बेहद जरूरी है कि जब हम कुछ भी बोलते हैं तो उसका हमारे लिये या दूसरों के लिये क्या असर या मतलब होता है? बोलना क्या होता है? ये कुछ ऐसी गहन बातें हैं, जिन्हें बुद्धि (दिमांग) से समझना आसाना या सामान्य नहीं है, लेकिन इसे समझना बेहद

30/05/2011

‘‘मैं’’ को जानें! ‘‘मैं’’ ही जीवन है!

समाज में ऐसे अनेक धर्म गुरु देखने को मिल जायेंगे, जो ‘‘मैं’’ को सारी समस्याओं की असली जड़ बताकर ‘‘मैं’’ से मुक्त होने का सन्देश देते रहते हैं और ऐसे गुरुओं से आश्‍चर्यजनक रूप से लाखों-करोड़ों लोग अपने उद्धार की अपेक्षा भी करते रहते हैं। ऐसे गुरुओं का कहना होता है कि जब तक ‘‘मैं’’ से मुक्ति नहीं मिलगी, तब तक मनुष्य को कुछ भी नहीं मिल सकता है। ऐसे लोगों का कहना होता है कि ‘‘मैं’’ ही सभी प्रकार की अहंकारपूर्ण बातों को जन्म देता है। इसलिये मनुष्य को अपने ‘‘मैं’’ को मारना होगा। मुझे इस प्रकार की बातें सुनकर और पढकर उन लोगों पर दया आती है, जो अपने ‘‘मैं’’ को मारने या कुचलने में उम्रभर लगे रहते हैं, लेकिन वे अपने ‘‘मैं’’ को नहीं मार पाते हैं। 

सच्चाई यह है कि ‘‘मैं’’ को कभी मारा ही नहीं जा सकता, फिर ‘‘मैं’’ को कुचलने से ‘‘मैं’’ से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। ऐसे गुरु अपने भक्तों को सुख और शान्ति रूपी सकारात्मकता प्रदान करने के बजाय ‘‘मैं’’ से मुक्ति पाने को यह कहकर प्रेरित करते हैं कि यदि संसार के बन्धनों से मुक्त होना है तो ‘‘मैं’’ से मुक्त होना ही होगा। जो व्यक्ति ‘‘मैं’’ से ही मुक्त नहीं हो पाता है, वह संसार के कथित बन्धनों से मुक्त होने की कल्पना भी कैसे कर सकता है। इस प्रकार गुरुओं का खेल (धंधा) चलता रहता है और इस प्रकार भक्तों को आध्यात्मिक रस के बजाय जहर को सेवन कराया जाता रहता है। 

‘‘मैं’’ को जाने बिना, ‘‘मैं’’ से मुक्ति की बात करना या ‘‘मैं’’ को प्रमाद या अहंकार का या नर्क का मार्ग बतलाकर अपने ही अनुयाईयों को डरा धमकाकर उनसे आध्यात्म शुल्क वसूल करना, न जाने कब से धन्धा बना हुआ है। जबकि जीवन अपने आप में ‘‘मैं’’ में समाहित है! ‘‘मैं’’ नहीं तो जीवन नहीं! जो लोग गुरु बनकर लोगों से उनका जीवन छीन रहे हैं, अपने अन्त:करण में झांककर देंखें तो पायेंगे कि वे लोगों के जीवन को दर्द और दु:खों की ओर धकेल रहे हैं। जो ‘‘मैं’’ को मारने या समाप्त करने की बात कर रहे हैं, वे न मात्र मानव हन्ता (मानव के हत्यारे) हैं, बल्कि ईश्‍वर हन्ता भी हैं। ऐसे लोग प्रकृति के सिद्धान्तों को न तो समझते हैं और न समझना चाहते हैं!

अब हमें ‘‘मैं’’ को समझना होगा, जो न तो बहुत कठिन है और न हीं बहुत सरल है। इसका कारण है, हमारा जीवन जीने का असहज तरीका! इसे समझने के लिये नवागतों के लिये कुछ उदाहरण प्रस्तुत करना जरूरी है। जैसे-

यहॉं हमारे आपके बीच के लोगों की कुछ साधारण सी बातों को पेश किया जा रहा है, जो हम सभी हर दिन बोलते और सुनते रहते हैं :-

‘मेरा हाथ दु:ख रहा है!’ अर्थात् हाथ ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरा पेट दु:ख रहा है!’ अर्थात् पेट ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरा सिर दु:ख रहा है!’ अर्थात् सिर ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरा पैर दु:ख रहा है!’ अर्थात् पैर ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरा दिमांग फटा जा रहा है!’ अर्थात् दिमांग ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरा मस्तिष्क खराब हो गया!’ अर्थात् मस्तिष्क ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरे हृदय में दर्द हो रहा है!’ अर्थात् हृदय ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरी किडनी में दर्द हो रहा है!’ अर्थात् किडनी ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरी आँतें दु:ख रही हैं!’ अर्थात् आँतें ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरी आँख दु:ख रही है!’ अर्थात् आँख ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरा मुख दु:ख रहा है!’ अर्थात् मुख ‘‘मैं’’ नहीं है!
‘मेरी नाक दु:ख रही है!’ अर्थात् नाक ‘‘मैं’’ नहीं है!

इस प्रकार शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग में दु:ख या तकलीफ होने पर ‘‘मैं’’ पेरशानी व्यक्त कर रहा है। ‘‘मैं’’ बता रहा है कि समस्या क्या है और हमारे कथित गुरु इस ‘‘मैं’’ को ही मार डालना, कुचल डालना चाहते हैं!

जबकि सच्चाई यह है कि ‘‘मैं’’ ही इन सारी समस्याओं का उपचारक और नियन्ता है। हम (हमारा शरीर) रात्री को सो जाते हैं, लेकिन हमारी सांस विधिवत चलती रहती है। हमारे फैंफड़े काम करते रहते हैं। हमारी आँतें भोजन को पचाने का काम कर रही होती हैं। हृदय नियमित रूप से धड़कता रहता है। शरीर का हर अंग बिना रुके काम करता रहता है। कभी सोचा है कि इसे कौन संचालित करता रहता है। रात्री में सोते में अचानक हमारे ऊपर कोई वस्तु या चूहा गिर पड़े तो बिना किसी प्रयास के हमारा पूरा शरीर अपने बचाव के लिये स्वत: ही काम करना शुरू कर देता है। 

यही नहीं, हमारी अंगुली कट जाती है, हम उसे बांध देते हैं और कुछ दिनों में घाव भर जाता है। टूटी हुई हड्डी जुड़ जाती है। सिर के बाल अविरल गति से बढते रहते हैं। नाखून बढते रहते हैं। एक उम्र तक छोटे बच्चे चलते-फिरते, सोते-जागते बढते रहते हैं। फिर किशोर, जवान और बूढे होते जाते हैं। जिसके लिये हम न तो कोई प्रयास करते हैं और न कुछ कर सकते हैं। सब कुछ अपने आप चलता रहता है। कभी सोचा है कि ऐसा किस प्रकार से और कैसे होता रहता है? इस सबके लिये हमारा ‘‘मैं’’ जिम्मेदार और उत्तरदायी होता है। जिसे हमारे कथित गुरु समाप्त करने पर उतारू हैं। 

सबसे बड़ी और समझने वाली बात यही है कि आखिर यह ‘‘मैं’’ क्या है? ‘‘मैं’’ कौन है, जो सब कुछ बता रहा है और सब कुछ जानता है, लेकिन फिर भी ईमानदारी से हर बात को प्रकट और संचालित कर रहा है। आप में से किसी ने कभी कहा है कि ‘‘मैं’’ दु:ख रहा हूँ। हॉं आपने यह जरूर सुना या अनुभव किया होगा कि ‘‘मैं’’ परेशान हूँ! ‘‘मैं’’ मरा जा रहा हूँ। 

जब हर जगह से घुटन और कुचलन होती है, तो पीड़ा अन्त में ‘‘मैं’’ तक पहुँच जाती है तो अन्त में ‘‘मैं’’ कहता है, ‘‘मैं’’ परेशान हूँ। जब ‘‘मैं’’ परेशान होता है तो या तो समस्या का समाधान हो जाता है या फिर इंसान का अन्त हो जाता है, क्योंकि ‘‘मैं’’ प्रथम और अन्तिम शक्ति है। ‘‘मैं’’ जीवन है। ‘‘मैं’’ प्रकृति है। ‘‘मैं’’ स्वभाव है। ‘‘मैं’’ सर्वांग है। ‘‘मैं’’ ईश्‍वर है। जब ‘‘मैं’’ सब कुछ है तो इसे मारकर या कुचलकर कोई जिन्दा कैसे रह सकता है? लेकिन हमारे कथित गुरु इस ‘‘मैं’’ को मारने और सताने के लिये हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। 

इसलिये आगे से जब कभी कोई मैं के खिलाफ कुछ भी बोले तो आँख बन्द करके उसकी बात का अनुसरण नहीं करें, बल्कि अपने ‘‘मैं’’ की रक्षा करें, क्योंकि ‘‘मैं’’ के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती! इसलिये हमें सबसे पहले ‘‘मैं’’ को समझने का प्रयास करना है और तब मैं का अनुसरण करना है। अनुसरण कैसे करना है। इस बारे में फिर कभी बात करेंगे। फिलहाल के लिये इतना काफी है। प्रत्येक जीव में विद्यमान परमात्मा आप सभी का भला करे।

28/05/2011

तीन कदम : एक वैज्ञानिक प्रार्थना आपका जीवन बदल देगी! Three Steps : A scientific prayer will change your life!

इस संसार में केवल और केवल आप ही अकेले वो व्यक्ति हैं, जो इस बात का निर्णय लेने में सक्षम और समर्थ हैं कि-
आप अपने अमूल्य और आलौकिक जीवन को बर्बाद होते हुए देखना चाहते हैं? या

आप अपने अमूल्य जीवन को जीने की वर्तमान पद्धति, अपनी सोचने की रीति, खानपान की रीति और अपने तथा दूसरों के प्रति आपकी सोचने, समझने और चिन्तन करने की धारा को सकारात्मक  दिशा देकर वास्तविक अर्थों में अपने जीवन को पूर्णता से जीना चाहते हैं या नहीं?

27/05/2011

वैज्ञानिक प्रार्थना? सवाल और समाधान!

यदि आप अपना जीवन संवारना चाहते हैं तो सम्पूर्ण मानवता को अपने शैतानी शिकंजे में बेरहमी से जकड़ने वाले खोखले अंधविश्वासों, गलत विश्वासों, गलत नियमों, काल्पनिक डरों और नकारात्मक सलाहों तथा रायों (विचारों) को आँख बंद करके मानना, उनका पालन करना और उन्हें अंतर्मन में स्वीकार करना तत्काल, बल्कि इसी क्षण से बंद कर दें तथा शाश्वत (सार्वभौमिक/सनातन) सत्यों और जीवन को जीवन्त बनाने वाली

26/05/2011

‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ का नाम ही-"कारगर प्रार्थना" है!

हम सभी जानते हैं कि हम में से हर एक व्यक्ति चाहे वह किसी भी उम्र का स्त्री हो, चाहे  पुरुष! चाहे वह किसी भी धर्म और किसी भी देश का हो, हर कोई यह दिली इच्छा, तमन्ना और ख्वाहिश रखता है कि-

11/05/2011

विद्वेश, कुढन, नफरत, ईर्ष्या, वहम, शत्रुता और प्रतिशोध के दुष्परिणाम!

मनोशारीरिक चिकित्सा विज्ञान ने इस बात को प्रमाणित किया है कि-दूसरों के प्रति विद्वेश, कुढन, नफरत, ईर्ष्या, वहम, शत्रुता और प्रतिशोध रखने तथा लोगों की लगातार आलोचना करने की नकारात्मक प्रवृत्ति के दुष्परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाला तनाव और विषाद मनुष्य के प्रतिरोधक तन्त्र को कमजोर करता है| जो आगे चलकर अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक रोगों का आधारभूत कारण बनता हैं| आप ‘वैज्ञानिक प्रार्थना’ के जरिये अपनी इस प्रवृत्ति को बदल सकते हैं|

10/05/2011

क्या हमें प्रार्थना करने के लिये किसी मुसीबत या अनहोनी के घटित होने का इन्तजार करना चाहिए?


"जीवन को सही अर्थों में सफलतापूर्वक जीना और जीवन की सार्वभौमिक सच्चाईयों को स्वीकार करना, सच्चाईयों में आस्था रखना और सच्चाईयों को प्यार करना किसी भी धर्म में या संस्कृति में निन्दनीय नहीं है|"
लोहे का टुकड़ा जब चुम्बक के गुणों से सम्पन्न हो जाता है तो वह अपने वजन से बारह गुने वजन के लोहे के टुकड़े को उठा सकता है| लेकिन यदि हम उसमें से चुम्बकीय गुणों को नष्ट कर दें, तो यही लोहे का टुकड़ा एक तिनके या रूई तक को नहीं उठा सकता| ठीक इसी प्रकार से चुम्बकीय आकर्षक गुणों से सम्पन्न शांति को प्राप्त ज्ञानवान गुरुजन आशा, विश्‍वास, आस्था और नित-नयी ऊर्जा से भरे हुए होते हैं| वे ठीक से जानते हैं कि उनका जन्म जीतने, सफल होने, ऊँचाईयॉं छूने और मानवता के उत्थान के लिये हुआ है|

जबकि इसके ठीक विपरीत संसार में अधिकतर ऐसे लोग होते हैं, जिनमें चुम्बकीय गुणों को तो छोडिये, किसी भी प्रकार के आकर्षक का सामान्य गुण भी नहीं होता है| समाज में अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है| ऐसे लोग अधिकतर समय अविश्‍वास, शंका, वहम, भय, डर और नकारात्मक भावों से भरे होते हैं| ऐसे नकारात्मकता से भरे लोग हमेशा हर काम के प्रारम्भ में "कहीं ऐसा हो गया तो, क्या होगा?" का काल्पनिक सवाल खड़ा करने से नहीं चूकते हैं| हर कार्य से पहले इन लोगों को नकारात्कम और आशंका ही नज़र आती है! ये लोग अपनी इसी एक मात्र कमी के कारण असफलता और निराशा के अन्धकार में पल-प्रतिपल मर-मर कर जीने को विवश होते हैं| ये लोग जहाँ एक ओर दूसरों को शांति से नहीं जीने देते हैं, वहीं दूसरी ओर ये लोग अपने जीवन को जीते नहीं हैं, बल्कि जीवन को काटते हैं| उनके अन्तर्मन (अन्तरात्मा) में छुपकर बैठा काल्पनिक डर और निराधार वहम उन्हें न तो आगे बढने देता है और न हीं उन्हें उनके जीवन को सही अर्थों में जीने ही देता है|

यदि ऐसे लोग "सत्य-धर्म" के व्यावहारिक तथा प्राकृतिक सूत्रों को और ‘‘वैज्ञानिक-प्रार्थना’’ के महत्व को समझ जायें तो कोई भी साधारण से साधारण व्यक्ति भी चुम्बकीय आकर्षण से युक्त गुणों से सराबोर हो सकता है| मैं क्या कोई भी आस्थावान व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि प्रार्थना करना कोई बुरी बात है| क्योंकि जीवन में कभी न कभी, कहीं न कहीं, हम में से सभी लोग प्रार्थना अवश्य करते हैं|

हम में से अधिकतर लोग तब प्रार्थना करते हैं, जबकि हम किसी भयानक मुसीबत या समस्या में फंस जाते हैं! या जब हम या हमारा कोई किसी भयंकर बीमारी या मुसीबत या दुर्घटना से जूझ रहा होता है! ऐसे समय में हमारे अन्तर्मन से स्वत: ही प्रार्थना निकलने लगती हैं| इसका मतलब ये हुआ कि हम प्रार्थना करने के लिये किसी मुसीबत या अनहोनी का इन्तजार करते रहते हैं! यदि हमें प्रार्थना की शक्ति में पक्का और दृढ विश्वास है तो हमें सामान्य दिनों में भी, बल्कि हर दिन ही प्रार्थना करनी चाहिये, लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि "हम में से बिरले ही जानते हैं कि सफल और परिणामदायी प्रार्थना कैसे की जाती है?" यही कारण है कि अनेकों बार मुसीबत के समय में हमारे हृदय से निकलने वाली और सामूहिक प्रार्थना भी असफल हो जाती हैं! हम निराश हो जाते हैं! प्रार्थना की शक्ति के प्रति हमारी आस्था धीरे-धीरे कम या समाप्त होने लगती है! जिससे निराशा और अवसाद का जन्म होता है, जबकि प्रार्थना की असफलता के लिए प्रार्थना की शक्ति नहीं, बल्कि हमारी अज्ञानता ही जिम्मेदार होती है! इसलिये यह जानना बहुत जरूरी है कि सफल, सकारात्मक और परिणामदायी प्रार्थना कैसे की जाये! सफल, सकारात्मक  और परिणामदायी प्रार्थना का नाम ही-‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ है और ‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ ही "कारगर प्रार्थना" है!

इस वैज्ञानिक प्रार्थना का किसी भी प्रचलित धर्म या सम्प्रदाय या पंथ से कोई लगाव या विरोध नहीं है| यह प्रार्थना तो जीवन की भलाई और जीवन के उत्थान के लिये है| किसी भी धर्म में इसकी मनाही नहीं है|

‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ के जरिये जीवन को सही अर्थों में सफलतापूर्वक जीना और जीवन की सार्वभौमिक सच्चाईयों को स्वीकार करना, सिखाया जाता है और इन जीवन मूल्यों में आस्था रखना और उन्हें प्यार करना संसार के किसी भी धर्म में निन्दनीय नहीं है|

इसीलिये हमारे द्वारा केवल ‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ की जाती है, इच्छुक लोगों से ‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ करवाई जाती है और सही तरीके से, सही ‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ सिखाई जाती है, जो किसी के भी जीवन में सुख, शान्ति, सफलता, खुशी और सौन्दर्य बिखेर सकती है| जरूरत है इस ‘‘वैज्ञानिक प्रार्थना’’ को "सत्य-धर्म" के जरिये सीखने की पात्रता अर्जित करने और अपने जीवन में इसे अपनाने की|

परमात्मा सभी का भला करते हैं| परमात्मा कभी किसी का बुरा नहीं करता| फिर हम परमात्मा के उपहार मानव जीवन रूपी प्रसाद का रसास्वादन करने में क्यों भूल कर रहे हैं?

26/04/2011

स्वस्थ, समृद्ध, सफल, शान्त और आनन्दमय जीवन हर किसी का नैसर्गिक (प्राकृतिक) एवं जन्मजात अधिकार है|

सर्व-प्रथम आपके लिये मुक्तकण्ठ से सकारात्मक कामना!
परमात्मा आपको स्वास्थ्य, सुख और सफलता प्रदान करे!!

संसार की हर गतिविधि को चलाने वाली सर्वोच्च सत्ता-परमपिता परमात्मा की असीम अनुकम्पा और स्नेहिल आशीष से ध्यानावस्था के दौरान मुझे आप जैसे सृजनशील विशिष्ठ व्यक्तित्व के धनी लोगों को और आपके माध्यम से अन्य सभी लोगों को सद्भावनापूर्वक यह अवगत कराने की प्रेरणा (आदेश) प्राप्त हुई है कि आज मानवता जिन दुखों, तकलीफों, तनावों, अवसादों और विभिन्न प्रकार की मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, वैवाहिक एवं एकाकी जीवन की पीड़ाओं को झेलने को विवश है, इन सबके लिये मूल रूप से हमारी नकारात्मक और रुग्ण मनोस्थिति जिम्मेदार है|

19/04/2011

प्रार्थना की शक्ति (The Power of Prayer)

प्रार्थना का अर्थ है—जीवात्मा के साथ सक्रिय, अनन्य भक्ति, प्रेममय सम्बन्ध। आदर्श प्रार्थना साधक की ईश्वर-प्राप्ति के लिये आर्त्तता या आकुलता की भावना की अभिव्यक्ति है। सच्ची हृदय से निकली हुई प्रार्थना तुरन्त फलदायिनी होती है।

18/04/2011

सत्य-धर्म क्या है? ( What is The Truth-Religion?)

हम सभी जानते हैं कि हम में से हर एक व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो, चाहे पुरुष, चाहे वह किसी भी धर्म और किसी भी देश का हो, हर कोई यह दिली इच्छा, तमन्ना और ख्वाहिश रखता है कि-